February 8, 2025

जानिए कौन है रॉसलिंड फ्रैंकलिन, जिसने डीएनए संरचना की खोज में एक महिला वैज्ञानिक के रूप मर निर्णायक योगदान दिया…

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डीएनए: डिऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड की डबल हेलिक्स संरचना के बारे में पुस्तक जरूर पढ़ा और देखा होगा कि डीएनए की बनावट बांस की सीढ़ी जैसी होती है और बांस के दोनों खंभे सीधे न होकर सर्पिल की तरह गोलाकार चक्कर काटते हुए ऊपर उठे होते हैं। इसके अलावा बायोलॉजी की क्लास में यह भी पढ़ा होगा कि डीएनए की इस सीढ़ीनुमा संरचना का पता 1953 में जेम्स वॉटसन और फ्रांसिस क्रिक ने लगाया था, जिसके लिए उन्हें 1962 में मॉरिस विल्किंस के साथ नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

लेकिन, क्या आप जानते हैं कि डीएनए संरचना की खोज में एक महिला वैज्ञानिक का भी निर्णायक योगदान था? उस महिला को न सिर्फ इतिहास ने भुला दिया बल्कि उसके काम के आधार पर डीएनए संरचना की खोज करने वाले नोबेल विजेताओं ने पुरस्कार ग्रहण करने के दौरान दिए जाने वाले अपने भाषणों में भी उसके योगदान का जिक्र तक नहीं किया! उस असाधारण प्रतिभा संपन्न महिला वैज्ञानिक का नाम था – रॉसलिंड फ्रैंकलिन।


विज्ञान जगत की एक महान प्रयोगवादी महिला वैज्ञानिक

डीएनए की डबल हेलिक्स संरचना का रहस्योद्घाटन करने में उनके निर्णायक योगदान को लगभग भुला दिया गया था। क्योंकि वे पुरुषों के वर्चस्व वाले वैज्ञानिक समुदाय में एक महिला शोधकर्ता थीं। रॉसलिंड फ्रैंकलिन ने विज्ञान के क्षेत्र में उस समय काम किया जब महिलाओं को अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में घर से बाहर अपनी पहचान बनाने के लिए बहुत ज्यादा संघर्ष करना पड़ता था। रॉसलिंड को भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा लेकिन उन्होंने कभी भी हार नहीं मानी और आज उनको विज्ञान जगत में एक महान प्रयोगवादी महिला वैज्ञानिक के रूप में जाना जाता है।

पेरिस में सब कुछ बढ़िया चल रहा था लेकिन 1951 में किंग्स कॉलेज, लंदन से तीन साल की फैलोशिप मिलने के बाद उन्होंने बेहद अनिच्छा के साथ फैसला किया कि उन्हें अपने वैज्ञानिक कॅरियर को आगे बढ़ाने के लिए लंदन वापस चले जाना चाहिए। गौरतलब है कि पेरिस छोड़ने तक वह भौतिक-रसायन विज्ञान की एक दिग्गज हस्ती के रूप में स्वीकारी जा चुकी थीं। 1951 में फ्रैंकलिन ने किंग्स कॉलेज, लंदन में सर जॉन रांडेल द्वारा निर्देशित मेडिकल रिसर्च काउंसिल की बायोफिजिक्स यूनिट में शोध सहयोगी के रूप में काम करना शुरू किया।

एक्स-रे डिफ्रेक्शन के क्षेत्र में भी महारत हासिल करने वाली ब्रिटिश महिला

एक्स-रे डिफ्रेक्शन के क्षेत्र में असाधारण महारत हासिल करने वाली ब्रिटिश जैव-भौतिक विज्ञानी (बायो फिजिसिस्ट), जिसने डीएनए, आरएनए (राइबोन्यूक्लिक एसिड), टोबेको मोजेक वायरस (टीएमवी), पोलियो वायरस, कोयला और ग्रेफाइट की सूक्ष्म संरचना को समझने में अहम योगदान दिया, उन्हीं रोजालिंड फ्रैंकलिन की आज पुण्यतिथि है। आज ही के दिन महज 37 साल की उम्र में 1958 में ओवेरियन कैंसर से उनकी मृत्यु हो गई थी। उस असाधारण प्रतिभा के बारे में संक्षेप में जानने की कोशिश करते हैं, जो आज विज्ञान के क्षेत्र में काम करने वालीं लाखों महिलाओं की रोल मॉडल है।

रॉसलिंड का जीवन परिचय

रॉसलिंड एल्सी फ्रैंकलिन का जन्म 25 जुलाई, 1920 को लंदन के एक समृद्ध और प्रभावशाली यहूदी परिवार में हुआ था। फ्रैंकलिन के पिता एलिस आर्थर फ्रैंकलिन लंदन के एक प्रमुख बैंक व्यवसायी (मर्चेंट बैंकर) थे और फ्रैंकलिन की माँ म्यूरियल फ्रांसेस वेली एक कुशल गृहणी थीं। फ्रैंकलिन का परिवार राजनीतिक रूप से उदारवादी और बेहद खुले विचारों वाला था। जब फ्रैंकलिन छह साल की हुईं तब उन्हें पढ़ाई के लिए लंदन के एक निजी डे स्कूल ‘नॉरलैंड प्लेस स्कूल’ में भेजा गया। बचपन से ही फ्रैंकलिन पढ़ाई-लिखाई में काफी होशियार थीं। उनकी चाची हेलेन बेंटविच के मुताबिक “रॉसलिंड खतरनाक रूप से चतुर थी और वह अपना सारा वक्त आनंद के लिए अंकगणित के सवाल हल करने में बिताती थी।”

जब फ्रैंकलिन 11 साल की हुईं तब उनका दाखिला सेंट पॉल्स गर्ल्स स्कूल में करवाया गया जो लड़कियों को भौतिकी और रसायन विज्ञान की शिक्षा देने वाले लंदन के चंद स्कूलों में से एक था। सेंट पॉल्स में फ्रैंकलिन ने विज्ञान, लैटिन और खेलों में उत्कृष्ट प्रदर्शन करते हुए छह डिस्टिंक्शंस के साथ 1938 में मैट्रिक की परीक्षा पास की।

कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में रोनाल्ड जॉर्ज रेफोर्ड नॉरीश के निर्देशन में डॉक्टरेट के लिए अनुसन्धान कार्य शुरू किया

विज्ञान में अपनी गहरी दिलचस्पी को ध्यान में रखते हुए फ्रैंकलिन ने वैज्ञानिक बनने का फैसला किया। लेकिन उनके पिता महिलाओं की उच्च शिक्षा के खिलाफ थे। उनका मानना था कि महिलाओं के लिए उच्च शिक्षा बेकार है और इसकी बजाए महिलाओं को विवाह करके घर-परिवार की जिम्मेदारी संभालनी चाहिए। फ्रैंकलिन के वैज्ञानिक बनने के फैसले को उनके पिता ने मंजूरी नहीं दी। लेकिन परिवार के ज्यादातर सदस्य फ्रैंकलिन के फैसले के समर्थन में थे। उनकी मां और चाची समेत परिवार के अनेक सदस्यों के समझाने के बाद आखिरकार उनके पिता ने अपना मन बदल लिया और जल्द ही फ्रैंकलिन को कैम्ब्रिज के प्रतिष्ठित न्यूहैम कॉलेज में दाखिला मिल गया।

शानदार आकादमिक प्रदर्शन करते हुए फ्रैंकलिन ने 1941 में स्नातक की उपाधि अर्जित की। न्यूहैम कॉलेज से आगे की पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप मिलने के बाद उन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में रोनाल्ड जॉर्ज रेफोर्ड नॉरीश के निर्देशन में डॉक्टरेट की डिग्री के लिए अनुसंधान कार्य शुरू कर दिया। लेकिन वह हठी, दबंग और आलोचना के प्रति संवेदनशील नॉरीश के साथ लगभग एक साल ही काम कर सकीं।

कोयले और ग्रेफाइट की क्षमता में वृद्धि के लिए शोध किया

उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था। फ्रैंकलिन भी युद्ध में अपना योगदान देना चाहती थीं। उन्होंने 1942 में ब्रिटिश कोल यूटिलाइजेशन रिसर्च एसोसिएशन (बीसीयूआरए) में एक सहायक अनुसंधान अधिकारी के रूप में अपनी सेवाएं देनी शुरू की। वहां उन्होंने युद्ध के प्रयासों में योगदान देने के लिए शोध किया। उनके शोध का उपयोग ब्रिटिश सैनिकों को सुरक्षित रखने में मदद करने वाले गैस मास्क के विकास में किया गया था। इसके अलावा उन्होंने कोयले और ग्रेफाइट की क्षमता में वृद्धि के लिए शोध किया और कोयले की सूक्ष्म कार्बनिक संरचना पर कई शोधपत्र छपवाएं।

कोयले की संरचना पर महत्वपूर्ण काम करने के लिए 1945 में फ्रैंकलिन को फिजिकल केमेस्ट्री में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट की उपाधि मिली। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद, वे पेरिस के लेबरटोयर सेंट्रल डेस सर्विसेज चिमिक्स डे लएट में एक्स-रे डिफ्रेक्शन तकनीक का अध्ययन करने के लिए चली गईं। वह पेरिस में हर तरह से खुश थीं, वहां महिलाओं और पुरुषों दोनों के साथ समान व्यवहार किया जाता था, जिसकी वजह से वह आसानी से अपने सहयोगियों का सम्मान अर्जित कर रही थीं। उन दिनों एक्स-रे डिफ्रेक्शन अपेक्षाकृत नई और जटिल तकनीक थी, लेकिन फ्रैंकलिन ने जल्द ही इस क्षेत्र में विशेषज्ञता हासिल कर ली। उन्होंने ग्रेफाइटीजेशन के प्रोसेस से गुजरने और न गुजरने वाले कार्बनों पर उल्लेखनीय काम किया।

फ्रैंकलिन ने किंग्स कॉलेज में एक्स-रे क्रिस्टलोग्राफी लैब की स्थापना की

फ्रैंकलिन ने विल्किंस के सहयोगी के रूप में काम करने से साफ-साफ इंकार कर दिया। उनका मानना था कि उन्हें उनके पूर्व अनुसंधान अनुभवों को ध्यान में रखते हुए डीएनए पर अध्ययन करने के लिए किंग्स कॉलेज में विशेष रूप से बुलाया गया है। जबकि विल्किंस का मानना था कि चूंकि वह काफी पहले से ही डीएनए पर काम कर रहे थे इसलिए फ्रैंकलिन को उनके अधीन काम करना चाहिए। कुल मिलाकर, फ्रैंकलिन और विल्किंस के बीच नहीं बनी। इसलिए फ्रैंकलिन ने अपने एक पीएचडी छात्र रेमंड जी। गोस्लिंग के साथ अकेले डीएनए पर अध्ययन करने का फैसला किया। फ्रैंकलिन ने किंग्स कॉलेज में एक्स-रे क्रिस्टलोग्राफी लैब की स्थापना की और अपने शोध के लिए आवश्यक उपकरणों का निर्माण खुद किया।

जब फ्रैंकलिन एक्स-रे डिफ्रेक्शन तकनीक द्वारा डीएनए की संरचना के निर्धारण में जुटी हुईं थीं, ठीक उसी दौर में जेम्स वॉटसन, फ्रांसिस क्रिक, मॉरिस विल्किंस और लाइनस पॉलिंग जैसे दिग्गज वैज्ञानिक भी डीएनए को समझने में जुटे हुए थे। बहरहाल, फ्रैंकलिन ने अपने काम में बाकियों की तुलना में काफी तेजी से प्रगति की। उन्होंने एक्स-रे क्रिस्टलोग्राफी तकनीक का प्रयोग कर पता लगाया कि डीएनए की प्रकृति दो स्वरूपों में थी-ए और बी. उन्होंने दोनों स्वरूपों का गहन विश्लेषण किया। अपने छात्र रेमंड गोस्लिंग के साथ मिलकर बेहद सावधानी, सटीकता और धैर्य के साथ डीएनए के दोनों स्वरूपों के एक्स-रे फोटोग्राफ्स और मात्रात्मक माप भी लिए। फ्रैंकलिन इस बिंदु पर कुछ नतीजे निकालने के काफी नजदीक थीं लेकिन वे हमेशा सतर्क रहती थीं और पूरी तरह निश्चित होने के बाद ही सार्वजनिक करना चाहती थीं।

अपना काम पूरी लगन से शुरू किया फ्रैंकलिन  ने

भले ही फ्रैंकलिन डीएनए पर अपने शोध को तेजी से आगे बढ़ा रहीं थीं लेकिन एक महिला होने के नाते किंग्स कॉलेज में उनके लिए स्थितियां काफी असहज कर देने वाली थीं। इस संबंध में फ्रैंकलिन की एक मित्र एन्ने सायरे अपनी किताब ‘रोजालिंड फ्रैंकलिन एंड डीएनए’ में लिखती हैं कि, “रोजालिंड पुरुष नहीं थीं। किंग्स कॉलेज में शुरू से ही उनके साथ वैज्ञानिक के बजाय उन्हें महिला मानकर व्यवहार किया गया और इस वजह से निचले दर्जे का माना गया।  इस कमतरी का न सिर्फ अहसास कराया जाता था बल्कि इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि उसमें और बढ़ोत्तरी ही की जाती थी। यह एक छोटी-सी बात है, लेकिन शायद इतनी छोटी भी नहीं।

असलियत में किंग्स कॉलेज में भोजन के लिए की गई व्यवस्था के जरिए यह सुनिश्चित किया गया था कि महिला कर्मचारियों का पुरुष सहकर्मियों के साथ महज औपचारिक और अलाभकारी संपर्क रहे और इस व्यवस्था में काफी हद तक महिलाओं को उनकी हैसियत का अहसास कराने वाला ऐसा तथ्य निहित थे जिसे समतामूलक नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार की असंतोषजनक परिस्थितियों के बावजूद फ्रैंकलिन ने अपना काम पूरी लगन से शुरू किया।”

डीएनए के ‘बी’ स्वरूप ‘फोटो-51’ के नाम से प्रसिद्ध है

फ्रैंकलिन ने डीएनए के ‘बी’ स्वरूप का पहला बढ़िया फोटोग्राफ (अब यह ‘फोटो-51’ के नाम से प्रसिद्ध है) मई, 1952 में हासिल कर लिया था। इस फोटोग्राफ से साफ था कि डीएनए की संरचना डबल हेलिक्स जैसी होती है, लेकिन फ्रैंकलिन किसी भी नतीजे पर पहुंचने से पहले डीएनए के ‘ए’ स्वरूप की संरचना जानना चाहती थीं और वह देखना चाहती थीं कि क्या डीएनए का यह स्वरूप डबल हेलिक्स वाला है या नहीं।

जब विल्किंस ने फ्रैंकलिन से डीएनए संबंधी आंकड़ें मांगे तो उन्होंने अपने निष्कर्षों को साझा करने से इंकार कर दिया। विल्किंस और फ्रैंकलिन की आपस में नहीं बनती थी और इसका फायदा जेम्स वॉटसन और फ्रांसिस क्रिक ने उठाया। फरवरी 1953 में विल्किंस ने फ्रैंकलिन की जानकारी या सहमति के बिना उनके द्वारा लिए गए फोटोग्राफ्स और डेटा को चोरी-छिपे वॉटसन को दिखाएं।

फोटो-51 देखने के बाद वॉटसन का मुंह खुला का खुला रह गया, उसमें डीएनए की डबल हेलिक्स संरचना को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था! बाद में एक इंटरव्यू में विल्किंस ने यह स्वीकार करते हुए कहा, “मैंने उसे जिम (वॉटसन) को दिखाया और कहा, ‘देखो, यह रही डबल हेलिक्स, और वह मूर्ख औरत इसे देख नहीं पा रही है’। निस्संदेह वॉटसन ने उसे ढूंढ लिया।”

डीएनए की डबल हेलिक्स संरचना की खोज करते हुए शोधपत्र प्रकाशित

वॉटसन और क्रिक की जोड़ी ने फ्रैंकलिन के साइंटिफिक डेटा और एक्स-रे फोटोग्राफ्स हासिल करने के बाद किसी भी पल प्रतिस्पर्धा में पिछड़ने की आशंका में अपने काम में खुद को झोंक दिया। इस डेटा ने उन्हें डीएनए की वास्तविक डबल हेलिक्स संरचना को निर्धारित करने के लिए आवश्यक अंतर्दृष्टि प्रदान की और उन्होंने जल्द ही (अप्रैल 1953) प्रतिष्ठित साइंस जर्नल ‘नेचर’ में अपनी खोज की घोषणा करते हुए एक शोधपत्र प्रकाशित करवा दिया। जबकि फ्रैंकलिन ने जुलाई 1953 में ‘नेचर’ में प्रकाशित अपने शोधपत्र में इस तथ्य को प्रस्तुत किया कि डीएनए डबल हेलिक्स संरचना है। और इस तरह प्रकाशन के मामले में वॉटसन और क्रिक ने फ्रैंकलिन को मात दे दी!

डीएनए की डबल हेलिक्स संरचना की खोज ने संपूर्ण विज्ञान जगत को झकझोर कर रख दिया। इस खोज के बाद जीव विज्ञान पूरी तरह से आणविक (मॉलिक्युलर) हो गया और उसमें आविष्कारों का ऐसा तूफान आया जो आज भी थमने का नाम नहीं ले रहा है। डीएनए संरचना की खोज के लिए 1962 में वॉटसन, क्रिक और विल्किंस को संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इससे पहले फ्रैंकलिन का निधन हो चुका था। यह कभी भी पता नहीं चल पाएगा कि नोबेल के लिए फ्रैंकलिन को नॉमिनेट किया गया था या नहीं, क्योंकि यह पुरस्कार मरणोपरांत नहीं दिया जाता है।

किताब ‘द डबल हेलिक्स’ में वॉटसन ने डीएनए संरचना की खोज को प्रकाशित करवाई

1968 में, वॉटसन ने अपनी किताब ‘द डबल हेलिक्स’ प्रकाशित करवाई जो डीएनए संरचना की खोज का एक सनसनी खेज विवरण है। इस किताब में, वॉटसन ने खोज में शामिल कई लोगों, विशेषकर फ्रैंकलिन को लेकर अपमान जनक टिप्पणियों और विद्वेषपूर्ण व्यक्तिगत विवरणों का इस्तेमाल किया है।

मार्च 1953 में फ्रैंकलिन किंग्स कॉलेज के माहौल से असतुष्ट होकर बिरकबेक कॉलेज चली गईं, जहां उन्होंने टीएमवी और आरएनए की संरचना और पोलियो वायरस का अध्ययन किया। संभवत: अपने प्रयोगों के दौरान लंबे समय तक एक्स-रे का अत्यधिक सामना करने के कारण उन्हें कैंसर हो गया। कैंसर के साथ दो साल तक संघर्ष करने बाद 16 अप्रैल, 1958 को महज 37 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। आज वे भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन विज्ञान में कैरियर बनाने की इच्छा रखने वालीं लाखों महिलाओं की एक सशक्त प्रेरणास्रोत हैं।

डूडल में, वह डबल हेलिक्स के माध्यम से फोटो 51 को देख रही हैं – यह एक उपनाम है जो किंग्स कॉलेज में उनके निर्देशन में रेमंड गोसलिंग द्वारा ली गई डीएनए की एक्स-रे विवर्तन छवि को दिया गया था, जो डीएनए संरचना के रहस्य को उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।

16 अप्रैल को दुनिया को अलविदा कहा

यह फोटो किंग्स कॉलेज के एक अन्य सदस्य मौरिस विल्किंस ने वाटसन को दी थी और क्रिक तथा वाटसन ने इसका उपयोग इतिहास बदलने के लिए किया। फोटोग्राफ़ी डीएनए के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती है, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण यह है कि डबल हेलिक्स स्ट्रैंड एंटी-पैरेलल थे। यह जीवविज्ञानियों के बीच सबसे अधिक बहस वाले विषयों में से एक है कि क्या वाटसन और क्रिक फोटो के बिना डीएनए की संरचना का अनुमान लगा सकते थे या फ्रैंकलिन अपने स्वयं के डेटा से ऐसा कर सकते थे यदि वह जीवित रहती (विल्किन्स ने वाटसन और क्रिक को बिना बताए फोटो दे दी थी)। वाटसन ने बाद में अपने काम की प्रतिष्ठित प्रकृति को स्वीकार किया और स्वीकार किया कि उनकी पुस्तक द डबल हेलिक्स में उनका वर्णन अक्सर गलत था।

डीएनए पर अपने काम के बाद, फ्रैंकलिन ने तंबाकू मोज़ेक वायरस और पोलियो वायरस पर काम किया। 16 अप्रैल 1958 को डिम्बग्रंथि के कैंसर के कारण उनकी मृत्यु हो गई। रोज़लिंड फ्रैंकलिन दुनिया भर के वैज्ञानिकों के लिए एक प्रेरणा थीं। दुख की बात है कि उन्हें 1962 में नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामित नहीं किया गया था, जब क्रिक, वॉटसन और विल्किंस को न्यूक्लिक एसिड (न केवल डीएनए संरचना) पर उनके काम के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया था, लेकिन यह कहना पर्याप्त है कि Google Doodle जैसी पहलों के लिए उनकी विरासत हमेशा के लिए जीवित रहेगी।

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